जैन धर्म की स्थापना तथा समग्र अध्ययन परीक्षाओं के दृष्टि से महत्वपूर्ण है
ऋषभदेव का जन्म महावीर स्वामी के जन्म से 250 वर्ष पूर्व माना जाता है
ऋषभदेव की पिता का नाम अश्वसेन था जो काशी के राजा थे
ऋषभदेव के माता का नाम वामा देवी राजा नरवर मन की पुत्री थी
ऋषभदेव के पत्नी का नाम प्रभावती था
यद्यपि जैन धर्म को संगठित और विकसित करने का श्रेय वर्धमान महावीर स्वामी को जाता है तथा आप इन्होंने जैन धर्म की स्थापना नहीं किया था लेकिन वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं
महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व
महावीर स्वामी का जन्म स्थान कुंड ग्राम के निकट बिहार में हुआ था
महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ जो बज्जी संघ के ज्ञातक क्षत्रिय थे
महावीर स्वामी के माता का नाम त्रिशला जो लिछवी शासक चेतटक की बहन थी
महावीर स्वामी के पत्नी का नाम सोदा राजा समरवती की कन्या थी
महावीर स्वामी के पुत्री का नाम प्रियादर्शना था
महावीर स्वामी के दामाद का नाम जामली जो उनका भांजा भी था
आगे चलकर जमाली प्रथम महावीर स्वामी का विरोधी बना
महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति जाम जृम्भिक गांव में रिज पालिका नदी के तट पर हुआ था
महावीर स्वामी को साल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी
महावीर स्वामी ने राजगिरी में वितुलाचल पहाड़ी पर वाराकर नदी के तट पर प्रथम उपदेश दिया था
महावीर स्वामी का प्रमुख उपाधि केल्विन थी जिसे सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे केवललीन कहते हैं
महावीर स्वामी के जीवन की अंतिम श्वास 72 वर्ष की उम्र में 468 ईसा पूर्व सस्तिपाल के शासक के क्षेत्र में मल्ल गणराज्य के प्रधान पावापुरी गांव राजगिरी बिहार में हुआ था
गोमटेश्वर की मूर्ति कर्नाटक के हासन जिले में श्रवणबेलगोला में स्थित है
यह मूर्ति बिना किसी सहारे से निर्मित विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है
इसका निर्माण चामुंडा राय ने करवाया था चामुंडा राय गंग नरेश राजबल्लभ चतुर्थ के दरबार में मंत्री थे
चंद्र गुप्त मौर्य ने संयास लेने के बाद शेष जीवन जा ही व्यतीत किया था
गोमटेश्वर महाराज को बाहुबली भी कहा जाता है
यह गोमटेश्वर महाराज प्रथम उपदेशक ऋषभदेव के पुत्र थे
गोमटेश्वर की विशालकाय प्रतिमा 17.5 मीटर ऊंची
यह एक बड़ी चट्टान को काटकर बनाई गई है यह मूर्ति विजयनगर साम्राज्य के शासकों द्वारा 1432 AD में स्थापित की गई थी
प्रत्येक 12 वर्ष के उपरांत इसे पूर्ण विधि-विधान से दूध दही घी से स्नान कराया जाता है इस पूरे काम को महामस्तकाभिषेक कहते हैं
जैन धर्म की दो सभाएं संपन्न हुई थी पहली सभा अर्थात पहली प्रथम संगीति पाटील पुत्र बिहार में संपन्न हुआ 300 ईसा पूर्व इसके अध्यक्ष स्थूलभद्र थे
इस सभा में जैन धर्म दो संप्रदायों में बट गया एक संप्रदाय स्थूलभद्र के अनुयायियों के द्वारा श्वेतांबर कहा गया जो श्वेत वस्त्र धारण करते थे
और दूसरा संप्रदाय भद्रबाहु के नेतृत्व में जिसे दिगंबर संप्रदाय कहा गया जो जो नग्न रहते थे यानी वस्त्र धारण नहीं करते थे
जैन धर्म की द्वितीय संगीति 512 ईसवी में गुजरात के बलल्भी में संपन्न हुआ द्वितीय संगीति के अध्यक्ष देवर्धिगण ( क्षमा श्रमण ) थे दूसरी संगीति में बिखरे हुए जैन ग्रंथों को संकलित किया गया जिसमें
12 अंग
12 उपांग
10 प्रकरण
6 छेदी सूत्र
4 मूल सूत्र
1 अनुयोग्य की रचना की गई दूसरी संगीति कि यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी
जैन धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण है
1.अतिशय पर बल देना
2. काया क्ले संकल्पना पर बल देना
3. संथारा प्रथा पर बल देना
4. सल्लेखना प्रथा पर बल देना
5.बाल निकलवाना
6.धूप में लेटना
7. ठंडे पानी में लेटना
8. शासक वर्ग का भाव
9.अन्य धर्मों का उत्थान
10.वर्ण व्यवस्था पर कुछ नहीं बोलना
11. वैदिक धर्म से पूरा मुक्त नहीं हो पाना यह प्रमुख कारण थे
जैन धर्म दिगंबर और श्वेतांबर में विभाजित होने के बाद
श्वेतांबर दो भागों में विभाजित हो गया
पहले भाग को पुजारा कहा जाता था
दूसरे भाग को ढूड़िया कहां गया
पुजारा को डेरा वासी भी कहा जाता था
ढुड़िया को स्थानिक संप्रदाय भी कहते थे
दिगंबर संप्रदाय तीन भागों में अलग अलग हो गया
1.तेरापंथी
2. बीसम पंथी
3. सम पिया सम पिया को तारण पंथी भी कहा जाता है
जैन धर्म को निम्नलिखित प्रकार से लोग जानते थे
1.जैन धर्म में ईश्वर की पूजा नहीं होती थी 2.वैदिक कर्मकांड का विरोधी था
3. मूर्ति पूजा का विरोध करता था
4. छुआछूत का विरोध करता था
5. जाति विरोधी प्रथा थी
6. आत्मा वादी दर्शन था
7. कर्म बात पर बल दिया जाता था
8. आत्मा का पुनर्जन्म होता है और आत्मा की मान्यता थी
जैन धर्म में ऐसी मान्यता है कि आत्मा कर्म भोगने के लिए पुनः जन्म लेती है
जैन धर्म में आत्मा कर्मों के प्रवाह में बध़ जाता है
जिससे व्यक्ति अपनी माया मोह में लिप्त हो जाता है
जैन धर्म के तीर्थंकर को भगवान के ऊपर रखा गया है
भगवान इनके नीचे आते हैं
जैन दर्शन के अनुसार -
आदिकाल से लेकर अनंत काल तक पृथ्वी का चर चरा अस्तित्व चलता रहता है
जैन दर्शन के अनुसार -
पृथ्वी पर कभी भी प्रलय नहीं आता है संसार सास्वत नित्य स्थाई आदि अनंत तक चलने वाला है
जैन दर्शन के अनुसार -
संसार का उत्थान होता है उत्थान के बाद पतन होता है पतन के बाद फिर उत्थान होता है
उत्थान को उपउत्सर्पिणी कहते हैं
पतन को अवसर्पिणी कहते हैं
पतन और पतन के बीच जो समय होता है उसे एक चक्र कहते हैं
जैन दर्शन के अनुसार एक चक्र में 24 तीर्थंकर 63 शलाका पुरुष भारत चक्रवर्ती सम्राट उत्पन्न होंगे
यह तीनों अपार उम्र वाले होंगे इन तीनों प्रकार के महापुरुषों को अपार उम्र धन वैभव इतिहास प्राप्त होगा कल्प वृक्ष की कृपा से सब कुछ प्राप्त होगा
जैन दर्शन के अनुसार -
संसार दो चीजों से मिलकर बना है
पहला जीव अर्थात चेतन
दूसरा अजीव अर्थात जड़
चेतन में ही आत्मा पाया जाता है और आत्मा में विशेष की आत्मा की बात कही गई है
जैन दर्शन में - जीव के अंतर्गत भौतिक पदार्थ आते हैं
जैन दर्शन में जड़ के अंतर्गत -
उदगल
थाला
आकाश
धर्म
अधर्म कहते हैं
उद्गल को पदार्थ अणुओं का होना पाया जाता है
थाला को समय करते हैं
आकाश को आकाश करते हैं
धर्म को गति कहते हैं
अधर्म को स्थिरता कहते हैं
जैन दर्शन में कर्म और आत्मा के बीच जो संबंध होता है उसे प्रवाह कहते हैं
इस प्रवाह को रोक देना ही अंततः मोक्ष की प्राप्ति कहा जाता है
कर्म और आत्मा के बीच प्रवाह होना आश्रव कहलाता है
आत्मा और कर्म के बीच के संबंध को बंधन कहते हैं
कर्म और आत्मा के बीच प्रवाह को रोक देना सोँवर कहलाता है
आत्मा को पहले किए गए कर्म को खत्म करने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं
निर्जरा के प्रभाव को खत्म होना ही मोक्ष कहलाता है
जैन दर्शन में रंग को विभिन्न प्रकार से दर्शाया गया है
काला रंग नीला रंग धूसर रंग बुरा चरित का घोतक माना जाता है
जबकि सफेद रंग पीला रंग लाल रंग को अच्छा चरित का घोतक माना जाता है
जैन दर्शन में आठ प्रकार के कर्मों की चर्चा मिलती है
जैन दर्शन में जैन धर्म की त्रिरत्न प्रतिपादित किए गए हैं
1. सम्यक ज्ञान यानी वास्तविक ज्ञान को कहते हैं
2.सम्यक दर्शन यानी सत्य में विश्वास करना
3.सम्यक चरित्र जिसे इंद्रियों व कामों पर पूर्ण नियंत्रण हो
जैन दर्शन में पंच महाव्रत जोड़ा गया है जिसका पालन करना अनिवार्य होता है पंच महाव्रत में 1.अहिंसा यानी जिओ की हिंसा नहीं करना 2.सत्य यानी सदा सत्य का मधुर बोलना
3.अस्तेय यानी चोरी न करना चाहिए
4. अपरिग्रह यानी संपत का ग्रहण न करना चाहिए
5. ब्रह्मचर्य यानी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण हो
सम्यक ज्ञान का तात्पर्य संग्रह ज्ञान से है पूर्ण ज्ञान से है
पांच प्रकार के ज्ञाननों की चर्चा की गई है
जैन धर्म में प्रयुक्त होने वाली कुछ प्रमुख शब्दावली और निम्नलिखित हैं
1.मति - ज्ञान जिसे इंद्रियों का पूर्ण ज्ञान हो
2. श्रुति ज्ञान। -जिसे सुनने का पूर्व ज्ञान हो 3.अवध ज्ञान - जिसे दिव्य ज्ञान कहते हैं 4.बसादी - जिसे कर्नाटक में स्थित जैन मठ को कहा गया है
5. परिवह को- कड़ाई कहां गया
6. साप्त - जिसे विश्ववास युग पुरुषों का वाक्य 7.साज को - भोजनालय कहा गया
8. मूल गुण - को मुनियों का आरकिकिओ के लिए 28 कठोर नियम बनाए गए
9. समोहा। - जिसे जैन बिहार कहा जाता है
10.स्थानक। - जो मुनियों के वर्षा आवास का आश्रय स्थान था
जैन धर्म में -
धर्म और दर्शन को परिभाषित किया गया है जो निम्नलिखित है
दर्शन शब्द का शुद्ध स्वरूप दिखाता है और धर्म जीवन को सही दृष्टि देता है
तथा उसकी प्राप्ति करवाता है
जबकि दर्शन सिद्धांत है और धर्म अभ्यास है
जैन दर्शन में स्यादवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है जो निम्नलिखित है
पहला सप्त भंगी न्याय
दूसरा सापेक्ष वाद
तीसरा विचारों की बहुलता को तथा उसके अस्तित्व को स्वीकार करना
चौथा सत्य के कई पहलू होते हैं
पांचवा सीमित ज्ञान के कारण हम हर पहलू को नहीं देख पाते हैं
जैन दर्शन में या जैन धर्म में गृहस्थ के लिए पांच महाव्रतओं का जिसे पंच व्रत भी कहा जाता है इसका पालन करना चाहिए
जैन धर्म में 4 शिक्षाप्रद की बात की गई है
प्रथम देशविरति है
दूसरा व्रत का पालन करना
तीसरा दान दया शिक्षा का पालन करना जिसे दया व्रत कहते हैं
चौथा समय का व्रत जिसमें दिन में तीन इच्छाओं को त्याग देना चाहिए और एकांत में बैठकर ध्यान लगाना चाहिए
जैन दर्शन में तीन गुण व्रत बताए गए हैं
पहला क्या कार्य करना है इसका निर्धारण करना चाहिए
दूसरा योग्य और अनुकरणीय कार्य ही करना है तीसरा अपने जीवन में भोग और भोजन की सीमा का निर्धारण करना है
जैन धर्म में कुछ पर्वतों की विशेष बातें निम्नलिखित है
कैलाश पर्वत जो नेपाल में स्थित है ऋषभदेव का शरीर त्याग यहीं पर हुआ था
सम्मेद पर्वत जो झारखंड में स्थित है पारसनाथ का शरीर यहीं पर त्याग किया गया था
वितुलांचल पर्वत जो बिहार में स्थित है यहीं पर महावीर स्वामी ने प्रथम उपदेश दिया था
माउंट आबू पर्वत राजस्थान दिलवाड़ा में जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है इसमें ऋषभदेव की मूर्ति भी है
शत्रुंजय पर्वत गुजरात में है जैन मंदिर के लिए प्रसिद्ध है
जैन धर्म को संरक्षण प्रदान करने वाले राजाओं का नाम निम्नलिखित है
महापद्मा और घनानंद यह दोनों नंद वंश के थे
बिंबिसार अजातशत्रु और उदयन यह तीनों हर्यक वंश के थे
चंद्रगुप्त मौर्य बिंदुसार और संम्पत्ति यह तीनों मौर्य वंश के थे
चंड प्रद्योत अवंती साम्राज्य का था
उदयन सिंधु शोवीर था
खारवेल कलिंग नरेश था
ममृगेशवरमन कदंब वंश का था
अमोघ वर्ष राष्ट्रकूट वंश का था सोमदेव सिद्धराज जयसिंह और कुमार पाल चालुक्य वंश और सोलंकी वंश के थे
जैन धर्म में महापुरुष या तीर्थंकर के प्रतीक चिन्ह ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहा जाता था बैल वृषभ सांड था
अजीत नाथ का प्रतीक चिन्ह हाथी था
संभव नाथ का प्रतीक चिन्ह घोड़ा था
अभिनंदन का प्रतीक चिन्ह कपि या बंदर था
मल्लिनाथ का प्रतीक चिन्ह कलश था
मुनीसुव्रत का प्रतीक चिन्ह कछुआ था
नेमिनाथ का प्रतीक चिन्ह नीला कमल था
अरिष्ठनेमी का प्रतीक चिन्ह शँख था पारसनाथ का प्रतीक चिन्ह सर्प का फन था
महावीर स्वामी का प्रतीक शेर था
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शत्रुंजय मंदिर, को दुनिया के सबसे खूबसूरत मंदिरों में से कई पुरातत्वविदों और धार्मिक वास्तुकला के विद्वानों द्वारा माना जाता है। अलंकृत ढंग से और त्रुटिहीन रूप से बनाए गए मंदिरों के भीतर चौबीस तीर्थंकरों की कई सैकड़ों मूर्तिकला संगमरमर की मूर्तियां मिली हैं।
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